ख्याल



ख्याल का अर्थ है कल्पना, विचार ,संरचना ! यह एक फारसी से शब्द है ख्याल से अभिप्राय यह है कि जो किसी की कल्पना  हो या किसी का विचार हो अर्थात यह भी कह सकते हैं कि जब गायक अपनी कल्पना को कुछ नियमों का पालन करते हुए अलाप - तान के साथ प्रस्तुत करें तो उस गायन शैली को हम ख्याल कहेंगे.
15वीं शताब्दी में ध्रुपद का गायन उच्च शिखर पर था उस समय ख्याल भी प्रचलन में आया विद्वानों का कहना है कि ख्याल का आविष्कार पहले ही हो चुका था परंतु इसका प्रचार-प्रसार मोहम्मद हुसैन शर्की ने किया था  इसने गायन शैली में द्रुपद की भांति नोम तोम वाला अलाप नहीं था इसमें गीत के बोलों के साथ कुछ नियमों का पालन करते हुए खटका, मुर्कि, मींड़, गमक  आदि का प्रयोग करते हुए आलाप तान के साथ प्रस्तुत किया जाता था ख्याल गायन मे स्वर सौंदर्य को बहुत महत्व दिया जाता है और उसमें श्रृंगार रस की प्रधानता रहती है
 ख्याल गायकी में दो भाग स्थाई और अंतरा होते हैं ख्याल  गाने से पहले  गायक द्वारा राग वाचक शब्दों का थोड़ा अलाप किया जाता है गायन के बाद गायक द्वारा कण ,मींड आलाप, बेहलावा के माध्यम से अपने भावनाओं की अभिव्यक्ति की जाती है इन तीनों के अंत में तिहाई लगाते हैं
 ख्याल दो प्रकार के होते हैं

 1बड़ा ख्याल
2. छोटा ख्याल
 बड़ा ख्याल 
                   बड़ा ख्याल विलंबित लय में गाया जाता है  संगीत सम्मेलनों में पहले बड़ा ख्याल गाया जाता है इसके बाद छोटा ख्याल गाया जाता है इसके दो भाग स्थाई और अंतरा होते हैं यह ख्याल गंभीर प्रकृति के होते हैं इसमें अधिकतर करुण रस, शांत रस ,श्रृंगार रस की प्रधानता होती है इसकी बंदिश  ध्रुवपद की भाँती होती है इसे एक ताल , झपताल ,तिलवाड़ा ताल, चार ताल ताल के साथ गाया जाता है 

छोटा ख्याल
                   अब ख्याल ख्याल ख्याल द्रुत लय में गाए जाते हैं सम्मेलनों में इसे बड़े ख्याल के बाद गाया जाता है यह ले में गाए जाने के कारण जल्दी गाया जाता है यह इसलिए कई गायक इसे स्वतंत्र रूप से अकेले ही जाते हैं इसमें भी दो भाग होते हैं इसमें भी दो भाग स्थाई अंतरा होते हैं या चंचल प्रकृति के होते हैं बड़े ख्याल के मुकाबले में चंचल प्रकृति के होते हैं छोटा ख्याल  एक ताल ,तीनताल, झपताल, रूपक ताल  जैसी कुछ तालों में गाया जाता है

राग


    राग का अर्थ हे आनंद देना ,राग वह सुंदर रचना होती है जो हमारे कानो को सुनने में अच्छी लगे, जब कम से कम पांच और अधिक से अधिक सात स्वरो की रचना को कुछ नियमो का पालन करते हुए ताल बृद्ध करके गाया बजाय जाता है तो वह  मधुर रचना को रचना राग कहलाती है |
 किसी भी राग में कुछ महत्वपूर्ण तथ्य होते है जो उस राग को उसकी  पहचान प्रदान करते है या यह भी कह सकते है कि उस राग को अन्य रागो से अलग पहचान प्रदान करते है जिस प्रकार एक थाट से अनेक राग उत्पन्न होते है उसी प्रकार एक राग से अनेको गीतों की रचना की जा सकती है संगीत में एक राग को दूसरे राग से अलग पहचान प्रदान करने वाले कुछ महत्वपूर्ण अंग इस प्रकार है
आरोह
          स्वरों के ऊपर की दिशा में चढ़ते  हुए क्रम को आरोह कहते है
अवरोह
          स्वरों के उतरते हुए  क्रम को आरोह  क्रम कहते है
पकड़
          वह स्वर समूह जो किसी राग की पहचान करवाता है उसे पकड़ कहते है

वादी स्वर
          किसी राग के वादी स्वर वो होते है जो उस राग में सब से अधिक गाये बजाये जाते है|

सम्वादी          
          सम्वादी स्वर वो स्वर होते है जो वादी से कम  परन्तु अन्य स्वरों से अधिक गए बजाए जाते है

अनुवादी
          अनुवादी ये स्वर  वः स्वर होते हे जो वादी और सम्वादी के बाद बचे हुए स्वर होती है

विवादी
          विवादी स्वर वो स्वर होती है जो राग में प्रयोग नहीं किये जाते परन्तु यह स्वर राग में वर्जित भी नहीं
          होते, इसलिए  कभी कभी कुछ संगीतकार इन स्वरों का प्रयोग राग में सुंदरता व रंजकता बढ़ाने  के लिए


           कर लेते है

न्यास के स्वर
            जिन स्वरों पर किसी राग में बार बार व अधिक देर तक ठहराव होता है  वे स्वर उस राग के न्यास
              के स्वर होते है

वर्जित स्वर
              ये व स्वर है जो किसी राग में बिलकुल भी प्रयोग नहीं किये जाते जिनके प्रयोग से राग के स्वरूप
             के बिगड़ने का खतरा रहता है क्योकि कुछ रागो में कुछ स्वरों का प्रयोग करनी से वो किसी अन्य
             राग का रूप ले लेते है

वक्र स्वर 
            जब राग में स्वरों को सीधे आरोह में या अवरोह क्रम में न गाकर  टेढ़े मेढ़े गाये व बजाए जाता है तो वे
             स्वर वक्र स्वर कहलाते है इन प्रकार के स्वरों का प्रयोग जिन रागो में किया जाता है उन रागो को
             वक्र चलन के राग कहते है 

मार्गी- देसी संगीत


 संगीत प्राचीन समय से ही संगीत दो धाराओं में मार्गी और देसी संगीत के रूप में प्रचलित है 
मार्गी  संगीत
प्राचीन काल में जब यह अनुभव किया गया कि संगीत के द्वारा मोक्ष की प्राप्ति की जा सकती है तब संगीत के महत्व को समझते हुए देवताओं और  गंधर्व द्वारा संगीत को कुछ विशेष नियमों द्वारा बांधा  गया इस विशेष संगीत को केवल गंधर्व देवताओं ऋषि-मुनियों के द्वारा ही प्रयोग किया जाता था इसका प्रयोग देवताओं की स्तुति में उन्हें प्रसन्न करने के लिए मोक्ष की प्राप्ति के लिए किया जाता था मैं यह साधारण  जन  मानसो की की समझ की  से बाहर था क्योंकि है  कठोर नियमों से बना हुआ संगीत था  मार्गी संगीत को उस समय बहुत ही पवित्र संगीत माना जाता था इसका प्रयोग साधारण जनता के लिए नहीं था
 देसी संगीत
देसी संगीत वह संगीत था जो उस प्राचीन समय की साधारण जनमानस अपनी प्रसन्नता लिए उपयोग करते थे इसके नियम कठोर नहीं थे और इस में आसानी से बदलाव करके मनोरंजन किया जा सकता था इस संगीत का प्रयोग उस समय के जनमानस अपने दिनचर्या के रूप में करते थे
  
 आज हम जो संगीत सुनते हैं वह संगीत इसी प्रकार से समय के साथ आए बदलावों के बाद हमें प्राप्त हुआ है ऐसा कहा जाता है कि मार्गी संगीत अब लुप्त हो गया है परंतु आज जो हमें यह संगीत प्राप्त है उसी मार्गी संगीत में आए हुए बदलावों के बाद हमें प्राप्त हुआ है

राग - मारू बिहाग




राग - मारू बिहाग
थाट - कल्याण
जाति -औडव - संपूर्ण 
रस्वर - दोनों म शेष शुद्ध
वादी - ग
संवादी - नि
गायन समय - रात्रि का प्रथम प्रहर
वर्जित स्वर - रे ध आरोह में
न्यास के स्वर - ग ,प, नि
सम प्रकृतिक राग - कल्याण और विहाग


 यह राग बहुत अधिक प्राचीन तो नहीं है परंतु यह लोकप्रिय बहुत है इसीलिए ही इस राग में अधिक
प्राचीन बंदिश से नहीं मिलती। इस राग का चलन तीनों सप्तक में समान रुप से होता है यह दो रागो कल्याण तथा विहाग के मिश्रण से बना है इस राग के आरोह में शुद्ध म का प्रयोग केवल सा के साथ ही किया जाता है राग में पहले ध का प्रयोग राग विहाग के समान शीघ्रता से करते हैं और बाद में कल्याण के समान पर ठहराव के साथ ध का प्रयोग करते हैं रे स्वर का प्रयोग भी उसी प्रकार से किया जाता है राग के अवरोह करते हुए म ग म ग की संगति की जाती है राग में अधिक प्रयोग  में तीव्र म ही किया जाता है

राग अल्हैया बिलावल









राग -अल्हैया बिलावल
थाट- बिलावल
जाति- षाडव-संपूर्ण
वादी-ध
संवादी-ग
स्वर- दोनों नि
वर्जित स्वर- म (आरोह में)

गायन समय - दिन का प्रथम प्रहर 
न्यास के स्वर - सा ग प नि
आरोह - सा रे ग रे ग प ध नि सां
अवरोह - सां नि ध प, ध नि ध प ,म ग रे सा
पकड़ - ग रे ग प नि ध नि सां
                यह उत्तरांवादी राग है इसका चलन मध्य और तार सप्तक में अधिक होता है राग बिलावल में जब आरोह में म को वर्जित कर दिया जाता है और अवरोह हमें नी को कोमल कर लिया जाता है तो राग अल्हैया बिलावल बनता है इस राग में ध ग  स्वरो में स्वर संगति देखने को मिलती है जिसे मींड द्वारा लिया गया जाता है इस राग में ग, नि  स्वरों का वक्र प्रयोग देखा जाता है जैसे- ध नि ध प , ग रे ग ।
 कोमल नि का प्रयोग दो न स्वरों के मध्य किया जाता है जैसे - ध नि ध । यह राग गंभीर प्रकृति का राग है इसमें ख़्याल, तराने, द्रुपद आदि गाए जाते हैं

राग - शुद्ध कल्याण

            

राग -  शुद्ध कल्याण
थाट - कल्याण
जाति - औडव - संपूर्ण
वादी - ग
संवादी -ध
स्वर - म ( तीव्र ) शेष शुद्ध
वर्जित स्वर - म नि (आरोह में)
गायन समय - रात्रि का प्रथम प्रहर
सम प्राकृतिक राग - यमन, देशकार ,भूपाली
आरोह- सा रे ग प ध नि सां
अवरोह - सां नि ध प म(तीव्र) ग रे सा
पकड़ - ग ,रे सा, नि ध प सा, ग रे प रे, सा
यह गंभीर प्रकृति का राग है इस राग का विस्तार मन्द्र और मध्य सप्तक में अधिक होता है ऐसा माना जाता है कि शुद्ध कल्याण की उत्पत्ति भूपाली और कल्याण रागो के मेल से हुई है इसीलिए कई लोग इसे भूप कल्याण कहकर भी पुकारते हैं इस राग में रे और प स्वर संगति देखने को मिलती है जो राग को विशेष रंजकता प्रदान करती है राग के आरोह में म और नि स्वरों को वर्जित किया जाता है परन्तु अवरोह में भी इनका प्रयोग अल्प ही रहता है क्योकि  अवरोह में अक्सर प से ग पर आते हुए म (तीव्र) को मींड की सहायता से ही लिया जाता  है इसके साथ नि का प्रयोग भी इस कारण से कम ही किया जाता है क्योंकि इससे राग कल्याण की छाया आने की आशंका रहती है तान प्रस्तुत करते हुए तो म स्वर को पूर्णतः छोड़ ही दिया जाता है जबकि नि स्वर का प्रयोग अवरोह में कुछ गायको द्वारा देखा जा सकता है ऐसा राग को भूपाली से भिन्न दिखने में सहायता होता है

राग - भैरवी


राग - भैरवी
थाट- भैरवी
जाति - सम्पूर्ण-सम्पूर्ण
वादी - म
सम्पूर्ण - सा
स्वर - रे ग ध नि कोमल शेष शुद्ध
गायन समय - प्रातः काल
सम प्रकृतिक राग - बिलासखानी तोड़ी
 यह अपने थाट का  आश्रय राग है इस राग के संबंध में यह कहा जाता है की इसका गायन समय प्रातः काल होने पर भी आजकल गायक इस अपनी इच्छा अनुसार किसी भी समय गाते बजाते है यह पूर्वांग वादी राग है परन्तु कुछ गायक इसका वादी स्वर म के स्थान पर प मानते है इस  सिथति में यह राग उत्तरांग वादी हो जाता है
अधिकतर कुशल गायक इस राग को गाते हुए राग की सुंदरता बढ़ने के लिए अन्य स्वरों को भी विवादी स्वरों के रूप में प्रयोग कर लिया करते है  कुछ लोग इसे गंभीर प्रकृतिक का राग मानते है  परन्तु यह राग चंचल प्रकृति का राग है क्योकि इसमें सभी 12 स्वरों को प्रयोग कर लिया जाता है और सभी 12 स्वरों का कुशल प्रयोग इस राग की चंचल प्रकृति को दर्शाता है चंचल प्रकृति के रागो में शृंगारिक रस की अधिकता होती है इस राग में तराने, ठुमरी ,टप्पा ,गजल, भजन आदि अधिक देखने को मिलते है इस राग में अधिकतर मसीतखानी गते बजाई जाती है फ़िल्मी संगीत में भी अधितर इसी राग का प्रयोग देखा जा सकता है यह भी माना जाता है की प्रत्येक संगीत की सभा का समापन इस राग के द्वारा ही देखने को मिलता है    

राग - देस


राग - देस 
थाट - खमाज
जाति - औडव -सम्पूर्ण
स्वर - दोनों नि शेष शुद्ध
वर्जित स्वर - आरोह में ग ध
गायन समय - रात्रि का दूसरा प्रहर
न्यास के स्वर -सा, रे, प 
सम प्रकृतिक राग - तिलक कामोद
आरोह - सा रे  म  प नि सां
अवरोह - सां नि ध प, म ग रे ग सा 
पकड़ - रे, म प, नि ध प , प ध प म , म रे ग सा

राग देस पूर्वांग प्रधान चंचल प्रकृति का राग है इसमें अधिकतर ठुमरिया ,गीत, ग़ज़ल, भजन व् छोटे ख्याल गए जाते है इस राग में रे स्वर पर बार बार ठहराव तथा इसका वक्र प्रयोग देखने को मिलता है आरोह में प स्वर का अलप प्रयोग किया जाता है इसके वादी तथा सम्वादी स्वर को लेकर कुछ मतभेद देखने को मिलता है कुछ लोग इस राग के वादी 'रे' सम्वादी 'प' को न मानकर प स्वर को वादी और रे स्वर को सम्वादी मानते है परन्तु यह उचित नहीं है  क्योकि यह राग पूर्वांग वादी है  और इस राग का गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर है जो की दिन के पूर्व अंग में आता है इसीलिए वादी स्वर पूर्वांग में और सम्वादी उत्तरांग कहना ही ठीक है  इस राग में रे s म ग रे स्वर समूह बार बार लिया जाता है अवरोह में सां से प को मींड द्वारा लिया जाता है कभी कभी कुछ कुशल गायको द्वारा दोनों नि का प्रयोग करते हुए भी देखने को मिलता है

राग - खमाज


राग - खमाज
थाट - खमाज
जाति - षाड़व -सम्पूर्ण
स्वर - दोनों नि शेष शुद्ध
वर्जित स्वर - रे
समय - रात्रि का दूसरा प्रहर
आरोह - सा, ग म , प , ध नि सां
अवरोह - सां नि ध प, म ग रे सा 
पकड़ - नि ध, म, प ध म ग
यह एक चंचल प्रकृति का राग है इस राग में ग म प नि स्वर समूह इस राग को सौंदर्य प्रधान करता है
इस राग में भजन ठुमरी ग़ज़ल  आदि गाये जाते है ठुमरी गायन अधिक प्रचलित है कभी कभी कुछ गायक ठुमरी गाते हुए आरोह में 'रे' स्वर का भी प्रयोग कर लेते है इस राग में कुछ गायक प स्वर को छोड़ते हुए ग म प नि सा स्वरों को लेकर गाते है क्योकि इस राग में प पर अधिक ठहराव नहीं किया जाता परन्तु कुछ गुणीजन ग म प नि सा स्वरसमूह का प्रयोग करके आलाप - तान लेते हुए भी देखे जा सकते है इस राग के आरोह में ध स्वर का प्रयोग भी बहुत कम किया जाता है राग खमाज अपने थाट का आश्रय राग होता है राग में आरोह के स्वर लेते हुए कई बार गायक प स्वर को छोड़ते हुए सीधा म स्वर पर चले जाते है कर्नाटकी संगीत में इस राग को हरी कांम्बोजी के नाम से जाना जाता है  

राग - जौनपुरी


राग - जौनपुरी
थाट - आसावरी
जाति - षाड़व - सम्पूर्ण
वादी  - ध
सम्वादी - ग
स्वर - ग ध नि कोमल शेष शुद्ध
वर्जित स्वर - ग आरोह में
सम्प्रकृति राग - आसावरी
गायन समय - दिन का दूसरा प्रहर
आरोह - सा रे म प नि सां
अवरोह - सां नि प म रे सा
पकड़ - म प, नि प, म प रे म प

राग जौनपुरी गंभीर प्रकृतिक का राग है इस राग के चलन तार सप्तक में अधिक है यह उत्तरांग प्रधान राग है इस राग में रे म प और प ग स्वरों की संगति बार बार देखने को मिलती है इस राग में ग स्वर पर म और ध स्वर पर नि का कण लिया जाता है यह राग आसावरी से मिलता हुआ लगता है परन्तु आरोह में नि का प्रयोग इसे

आसावरी से अलग कर देता है क्योकि आसावरी में नि को वर्जित किया जाता है इसे अलावा भी कुछ बातें दोनों को अलग करती है जैसे दोनों का गायन समय अलग अलग है आसावरी राग का गायन समय प्रातः काल है परन्तु जौनपुरी राग का गायन समय दिन का दूसरा प्रहर है दोनों में जाती की भी भिन्नता है राग आसावरी की जाति  औडव -सम्पूर्ण है जबकि राग जौनपुरी की जाती षाड़व - सम्पूर्ण है  बहुत से रागो में कुछ स्वर समूह ऐसे आ जाते है जिसे किसी अन्य राग की छाया प्रकट हो इस राग में भी म प ध नि सां -रे नि प ऐसा स्वर समूह है जिससे की राग गांधरी जो एक प्राचीन राग है का आभास होता है परन्तु उस राग में दोनों रे का प्रयोग होता  है