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ध्रुवपद



ध्रुपद एक गंभीर प्रकृति की गायन शैली है ध्रुव शब्द का अर्थ होता है स्थिर, अचल, पवित्र आदि इस संबंध में यह भी माना जाता है कि ध्रुव पदों का विकास ध्रुवा गीतों से हुआ जिसके बारे में भारत ने अपने ग्रंथ नाट्य शास्त्र में लिखा है समय के परिवर्तन के साथ साथ ध्रुवा गीतों से ही ध्रुवपदो का विकास हुआ.  ध्रुवपदो का प्रचलन मध्यकाल से अधिक था यह एक उच्च कोटि का गायन था कुछ विद्वानों का मत यह भी है कि ध्रुपद का गायन शैली का आविष्कार राजा मानसिंह तोमर ने किया परंतु कुछ का कहना है कि यह गायन शैली पहले से ही मौजूद थी राजा मानसिंह तोमर ने केवल इसके विकास में योगदान दिया और इसका प्रचार प्रसार करते हुए उसे उच्च दर्जा प्रदान किया ध्रुवपद के चार अंग होते हैं स्थाई, अंतरा ,संचारी, आभोग.
        आजकल हमें ध्रुवपदों के दो ही अंग देखने को मिलते हैं स्थाई तथा अंतरा. प्राचीन काल में इनकी भाषा
संस्कृत हुआ करती थी. परंतु समय के साथ यह अन्य भाषाओं में भी गाए जाने लगे, यह पुरुष प्रधान गायकी मानी जाती है इस गायकी में धीमी गति से गीत प्रारंभ करते हुए लयकारियो  का प्रदर्शन दोगुन ,तिगुन ,चोगुन तक  किया जाता है विशेष रुप से तीव्रा ताल, सुल्फाक ,चौंताल  ,आड़ा चौंताल ,ब्रह्मा ताल ,मत्त ताल ,सुल्ताल व  रूद्र ताल आदि में गाया जाता है ध्रुवपदों के साथ ताल मृदंग और पखावज की संगत होती है ध्रुवपद एक जोरदार व शुद्ध गायन शैली है 
           वर्तमान समय में हमें ध्रुवपदों की बंदिशों में प्रसंग,भगवान की प्रशंसा वर्तमान साधुओं का वर्णन राजाओं की प्रशंसा आदि पर आधारित रचनाएं मिलती है ग्रुप गाते समय फेफड़ों तथा कंठ पर जोर पड़ता है इस गायन शैली में श्रंगार रस ,वीर रस ,भक्ति रस और शांत रस की प्रधानता देखने को मिलती है प्राचीन काल में ध्रुपद गायक को कलावंत कहा जाता था