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स्वरलिपि पद्धति का उद्भव और विकास

मानव आरंभ से ही अपने विचार , ज्ञान और अनुभवों को स्थिर रखने की क्षमता रखता है संगीत साहित्य कलाएं मानव की अमर आत्मा के उत्पादन हैं जिनके द्वारा संगीत युगों से आज तक जीवित है यदि स्वर लिपि का आविष्कार ने हुआ होता तो हजारों वर्ष पहले जो पैगंबर  महर्षि हुए उनकी ज्ञानवाणी से हमें वंचित रहना पड़ता  अतः इस प्रकार यह हमारे मानव जीवन का एक महत्वपूर्ण अंग है
स्वरलिपि का अर्थ:-   लिपि केवल साहित्य की ही नहीं होती है चित्रलिपि, संगीतलिपि आदि कई लिपियां होती हैं  संगीत की स्वरलिपि में मात्रा, ताल और गीत के बोल आदि का समावेश होता है स्वरलिपि का अर्थ है किसी भी गीत अथवा गाने के बोलों को स्वर और ताल सहित लिखना आदि हम आलाप को भी लिखना चाहे तो चाहे वह तो गायन हो या वादन दोनों को स्वरों में लिख सकते हैं  उसे उस आलाप की स्वरलिपि कहेंगे
  स्वरलिपि के उत्पत्ति:-  स्वरलपि की उत्पत्ति उत्पत्ति वेदों से मानी जाती है वैसे इस लिपि का हमारे देश में पाणिनि के समय में यानी ईसा से 500 वर्ष पूर्व प्रचार था जैसे हम देखते हैं प्राचीन ग्रंथों में षडज ,ऋषभ, गंधार, मध्यम के संक्षेप में सा, रे ,ग ,म दिए हैं 
  भारत की सही लिपि पूर देशों में नहीं पहुंची बल्कि अरब देशों में पहुंची. 11वीं व 12वीं शताब्दी के आरंभ में यह अधिक प्रचार में आई l आधुनिक युग में जनसाधारण का ललित कलाओं की ओर झुकाव हो गया था तब आवश्यकता अनुभव हुई  एक ऐसे विकसित साधन कि जो मानव की इस संगीत विधि की सुरक्षा कर सके इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए स्वरलिपि बनाई गई

 संगीत में स्वरलिपि की आवश्यकता:-  संगीत मुख्यतः क्रियात्मक है और इसके क्रियात्मक रूप को बनाए रखने के लिए किसी ने किसी आधार की आवश्यकता होती है अतीत में तानसेन बैजू बावरा मानसिंह तोमर आदि ऐसे कलाकार हो चुके हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि तानसेन इतना अच्छा गाते थे कि पानी बरसने लगता था दीप जलने लगते थे और हिरन आ जाते थे किंतु आज यह केवल एक कहावत सी प्रतीत  होती है यदि प्राचीन और मध्यकालीन संगीत का कोई क्रियात्मक रूप सुरक्षित होता तो लोगों को प्राचीन और मध्यकालीन संगीत के वास्तविक रूप के बारे में पता चल जाता 
    स्वरलिपि की सहायता से एक और संगीत का क्रियात्मक रूप सुरक्षित रहता है तो दूसरी और यह संगीतज्ञ को भटकने से बचाता है गुरु परंपरा से प्राप्त विधि  को स्थाई रूप देने की इच्छा से कुछ गणमान्य संगीतज्ञ ने अपनी संगीत कला की विशेषताओं को क्रियात्मक रूप से सुरक्षित रखा ! प्राचीन समय में विद्यार्थी गुरु मुख से सुनकर विद्या ग्रहण करते थे जिनमें स्वरलिपि की इतनी आवश्यकता नहीं पड़ती थी , जब बीसवीं शताब्दी में सुविधाजनक परिस्थितियां हुई दबी हुई कला फिर से पनप उठी, लोग फिर से गुरुओं के  पास जाकर विद्या प्राप्त करने लगे परंतु कुछ ऐसे संगीत प्रेमी भी थे जो संगीत सीखना चाहते थे परंतु सुविधाजनक परिस्थितियां ना होने के कारण संगीत नहीं सीख पाते थे और प्रत्येक स्थान पर गुरु भी नहीं मिल पाते थे साथ ही जब तक गुरु की इच्छा नहीं होती थी तो वह हर एक को अपना शिष्य नहीं बनाते थे प्राचीन काल में स्वर लिपि का विकास बिल्कुल नहीं हो पाया था क्योंकि संगीत शिक्षा मौखिक रूप से दी जाती थी इसके अतिरिक्त संगीत को किसी भी प्रकार से लिपिवृद्ध नहीं किया गया इस प्रकार हम प्राचीन और मध्यकालीन संगीत से वंचित रह गए 19 वी सदी के उत्तरार्ध और बीसवीं सदी के पूर्व में संगीत की बड़ी बुरी दशा थी एक और संगीत वेश्याओं के हाथ लग चुका था और दूसरी ओर रहे सहे उस्ताद जल्दी से किसी को संगीत नहीं सिखाते थे अतः संगीत साधारण लोगों से दूर होता चला गया. उस समय रेडियो यातायात के साधन भी सुगम नहीं थे न ही घर पर आसानी से सुना जा सकता था ना सीखने जाना आसान था इससे यही हानि हुई  की याद रखने वाली संख्या कम होती थी और ना ही किसी के पास संगीत का भंडार ज्यादा हो पाता था
 विस्तार एवं विकास:-  प्राचीन काल के उस्ताद अपने पुत्र या कम शिष्यों को ही अपने सामने बैठाकर सिखाते थे यदि गुरु किसी कारण अपने शिष्य से नाराज हो जाते थे तो उस शिक्षण कार्य वहीं समाप्त हो जाता था इस प्रकार शिष्यों की संख्या पूर्ण हो जाती थी पंडित विष्णु दिगंबर और पंडित भारतखंडे ने संगीत और असाधारण जनता को कि इस दूरी को दूर करने का प्रयास किया उन्होंने स्वरलिपि की आवश्यकता को समझा और स्वरलिपि का निर्माण किया यह सच है कि आवश्यकता आविष्कार की जननी है यदि स्वरलिपि के गायन के गले की सूक्ष्मता सुख समद्धि संभव पाना मुश्किल था परंतु इस स्वरलिपि से लाभ हुआ उसे भुलाया नहीं जा सकता कितने अचरज की बात है कि संगीतकार एक धुन की रचना करता है और वही धुन विश्व भर में प्रचलित हो जाती है इसी प्रकार दोनों का अस्तित्व वर्णो से वर्षों से चला आ रहा है यदि यह कहा जाए कि स्वरलिपि में देशकाल को जीतने की क्षमता है तो अनुचित न होगा देश में भिन्न-भिन्न स्थानों पर एक ही पाठ्यक्रम स्वरलिप द्वारा संगीत का विकास संभव हो सकता है
मनोरंजन की दृष्टि से आवश्यकता:-    आजकल मनुष्य का जीवन इतना व्यस्त है कि उसके लिए विश्राम के पल बहुत कम होते हैं इसी में उसे मनोरंजन भी करना है ऐसी अवस्था में यदि गुरु के पास जाकर संगीत सीखना पड़े तो कितना कठिन होगा और न ही ऐसा कोई गुरु होगा जो मनोरंजन मात्र के लिए शिक्षा दें ऐसे समय में कितना आसान होगा कि थोड़े समय में स्वर लिपि देखे उसका अभ्यास किया और अपना तथा दूसरों का मनोरंजन किया . आज के इस आधुनिक युग में बिना स्वरलिपि के संगीत की प्रगति के विषय में सोचना व्यर्थ की बात होगी