चंद्रकौंस

  


राग  - चंद्रकौंस 

थाट - भैरवी 

जाती - औडव - औडव 

वादी - म 

सम्वादी - सा  

स्वर -  शेष शुद्ध 

वर्जित स्वर - रे प 

न्यास के स्वर - म सा नि 

समय - रात्रि का तीसरा प्रहर 

सम प्रकृतिक  राग - मालकोंस 

आरोह - स नि सां   

अवरोह - सां नि , म, सा 

पकड़ - ग म सा, नि, सा 

यह गंभीर प्रकृति का राग हैं क्योकियह वातावरण पर तनावपूर्ण प्रभाव डालता हैं यह उत्तरांग प्रधान राग हैं यह मध्य सप्तक और तार सप्तक में अधिक खिलता हैं इसके थाट के संबंध में लोगो में मतभेद पाया जाता हैं  कुछ लोग इसका थाट काफी बताते हैं इसमें नि स्वर की बहुत प्रधानता हैं शुद्ध नि की प्रबलता का  यही गुण इसे मालकोंस से अलग करता हैं मलकोंस में कोमल नि को शुद्ध करने से ही इस राग की उतपत्ति  हुई हैं  नि की प्रबलता के कारण तानपुरे में भी मध्यम के स्थान पर नि ही मिला लिया जाता हैं 


इस राग में ग को छोड़ कर बाकि सभी स्वरों पर न्यास किया जा सकता हैं चंद्रकौंस की तुलना में मालकोंस में मींड अधिक ली जाती हैं  


कजरी


 कजरी 

कजरी एक लोकप्रिय गीत है जो उत्तर प्रदेश के पूर्वी भागों में अधिक पाया जाता है  इसे कजली के नाम से भी जाना जाता है कजरी में अधिकतर वर्षा ऋतु , विरह गीत , राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन देखने को मिलता है इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है कजरी को कजली नाम से भी जाना जाता है कजरी का गायन पुरुषों और महिलाओं दोनों के द्वारा किया जाता है महिलाएं जब समूह में इसे प्रस्तुत करते हैं तो उसे ढूनमुनियाॅ कजरी कहते हैं पुरुषों की कजरी अलग प्रकार की होती है उनके प्रस्तुत करने का ढंग अलग होता है कजरी का गायन सावन के महीने में त्यौहारों जैसे तीज, रक्षाबंधन आदि सावन के महीने में होता है ऐसा देखने सुनने को मिलती है जब नव विवाहिता अपने पीहर रहने को आती है और अपने भाभी और सखियों के संग झूला झूलते हुए मिलकर कजरी का गायन करती हैं

           मिर्जापुर से बनारस की कजरी बहुत प्रसिद्ध है दोनों का अपना अलग-अलग रंग है कजरी का संबंध एक धार्मिक तथा सामाजिक पर्व से भी जुड़ा है भादो के कृष्ण पक्ष की तृतीया को कजरी व्रत पर्व मनाया जाता है यह स्त्रियों का मुख्य त्यौहार है इस दिन सभी स्त्रियां नए वस्त्र और आभूषण पहनकर कजरी देवी की पूजा करती है और अपने भाइयों को 'जई' बांधने को देती है कजरी गाते हुए देवी का गुणगान किया जाता हैं  इस दिन रतजगा करके सारी रात कजरी गाती है अलग-अलग स्थनानुसार कुछ अलग मान्यताये भी होती हैं 

कजरी इसे कजली भी कहा जाता है कजली गीतों में वर्षा ऋतु का वर्णन विरह वर्णन राधा कृष्ण की लीलाओं का वर्णन अधिक देखने को मिलता हैकजरी का विकास एक अर्ध शास्त्रीय गायन विधा के रूप में हुआ हैं कजली के प्रकृति शूद्र है इसमें श्रृंगार रस की प्रधानता होती है मिर्जापुर और बनारस में कजली गाने का प्रचार अधिक पाया जाता है 

                                                      

भारतीय संगीत की पद्तिया


 मुख्य रूप से भारतीय संगीत की दो प्रसिद्ध  पद्तिया मानी जाती है .  

1.उत्तर भारतीय संगीत पद्ति

2.दक्षिण भारतीय संगीत पद्ति

 

1. उत्तर भारतीय संगीत पद्ति :-

                                              इसे हम हिंदुस्तानी संगीत पद्ति भी  कहते  है| भारत के  अधिकतर भागो में यही पददति प्रचलित है इस पद्ति का नाम ही  यह स्पष्ट होता है की

यह उत्तर भारत में अधिक प्रचलन में है  भारत में यह पंजाब हरियाणा, उत्तर प्रदेश, बिहार, गुजरात,, जम्मू कश्मीर, उड़ीसा, आदि राज्यों क साथ अन्य भी कई राज्यों में प्रचिलित है 


2. दक्षिण भारतीय संगीत पददति :- 

                        जैसा क नाम से ही स्पष्ट होता है की यही दक्षिण भारतीय राज्यों में अधिक प्रचिलित है |जैसे :-मैसूर,  आंध्रप्रदेश ,तमिलनाडु  आदि |इस  पद्ति को हम कर्णाटकीय संगीत  पद्ति के नाम से भी जानते है      

            भारत में यह दो पद्तिया ही प्रचलित है| प्राचीन काल में सम्पूर्ण भारत में एक ही  पद्ति प्रचलित हुआ करती थी ,परन्तु तेरहवी शताब्दी में भारत में मुसलमानो का आगमन हुआ तो उनके द्वारा भारतीय  संगीत में बहुत सारे बदलाव किये गए और इस बदलाव ने उत्तर भारत में संगीत को बहुत अधिक प्रभावित किया और समय के साथयही संगीत दो भागो में बट गया 

 |क्योकि मुसलमान शासको का  उत्तर भारत पर अधिक प्रभाव था इसलिए उत्तर भारत के संगीत में अनेक प्रकार क परिवर्तन आये  परन्तु दक्षिण भारतीय संगीत इन परिवर्तनों से अछूता रह गया |

 इन परिवर्तनों के कारण दो पद्तिया प्रचलन में आयी | मुसलमान शासको को संगीत से प्रेम था इसलिए इनके शासनकाल में संगीत पर अनेक प्रयोग किये गए  

 , इन्होने श्रंगारिकता  को संगीत में समावेश  करने के  साथ साथ भारतीय संगीत सम्बन्धी ग्रंथो को  भी नष्ट कर दिया | फ़ारसी संगीत , सभ्यता व कला का उत्तर भारतीय संगीत पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ा जबकि दक्षिण में इसका ज्यादा प्रभाव नहीं रहा  |परन्तु फिर भी दोनों पद्तियो में अंतर के साथ कुछ समानताये भी है 

                                                                समानताये  

  * दोनों पद्तियो ने ठाट राग सिद्धांत को माना  है  

  * दोनों पददति में एक  सप्तक में बाईस श्रुति मानी  जाती है 

  * दोनों पददतियो में कुल 12  स्वर माने जाते है   

  * कुछ राग भी ऐसी है जो दोनों पददतियो में एक जैसे  नाम से जाने  जाते है जैसे :- बागेश्री 

                                                                       अंतर  

  * दोनों पददतियो में स्वरों की संख्या तो समान है परन्तु कुछ स्वरों को अलग नाम से भी पुकारा जाता है 

  * कुछ राग ऐसी  है जिन्हे उत्तर भारत में अलग नाम से व दक्षिण भारत में अलग नाम से जाना जाता है 

  * उतर भारत में प्रयोग होनी वाले थाटों की संख्या में और दक्षिण भारत में प्रयोग होना वाले थाटों की संख्या में भिन्नता  पाई  जाती  है   

  * उत्तर भारतीय संगीत की गायन शैली में और दक्षिण भारतीय संगीत की गायन शैली में बहुत अंतर पाया जाता है 

  * दोनों पददतियो की तालो में भी भिन्नता पाई जाती है

घराना संगीत

             

                     घराना संगीत 

घराना शब्द का संबंध हम घर से मान सकते हैं जिस प्रकार हर घर के कुछ नियम, कायदे ,कानून  व तोर तरिके होते हैं जिनका पालन उस  परिवार का प्रत्येक सदस्य करता हैं इसी प्रकार घराना प्रणाली होती हैं  जिसके अंतर्गत कोई शिक्षार्थी केवल एक स्थान और एक गुरु से ही संगीत की शिक्षा लेता हैं और उसी की शैली , तरीकें और नियम कानूनों का पालन करते हुए संगीत शिक्षा को प्राप्त करता  हैं  

                            प्राचीन समय में जब मुस्लिम राजाओ का  भारत में आगमन हुआ  तब भारतीय संगीत में तेजी से कई बदलाव आये इसमें प्रयोग किये जाने वाले शब्दों में भी परिवर्तन हुए , संगीत के क्षेत्र में नए नए आविष्कार व बदलाव आये . कुछ शासको ने संगीत के उत्थान में कार्य किया तथा कुछ शासक  ऐसी भी रही जिन्होंने संगीत को जड़ से ही मिटाना चाहा , ऐसी स्थिति में संगीतज्ञों पर अनेक अत्याचार भी किये गए उन्हें संगीत छोड़ने के लिए विवश किया गया . संगीत संबंधी अनेक ग्रंथ जला दिए गए तब कुछ महान संगीत शास्त्रियों ने सब से छुप कर इस कला को जीवित रखने की ठानी और संगीत के प्रति अपना समर्पण भाव दिखते हुए इसे जिन्दा रक्खा और अपने शिष्यों को सिखाया, ऐसी स्थिति में ये अपने घर में ही छुप कर अभ्यास करते रहे और अपने वंशजो को संगीत की शिक्षा देते रहे और इस प्रकार यह एक परम्परा सी बन गयी और इसी तरह से घराने अस्तित्व में आये | इन घरानो से सीख कर निकले हुए शिष्य जब कही अन्य स्थान पर जा कर रहने लगे तब इन्होने भी अपने शिष्यों को सीखना प्रारम्भ कर दिया इसी प्रकार अलग अलग घरानो का प्रादुर्भाव हुआ |


प्रत्येक घराने की कुछ विशेषता होती हैं क्योकि  प्रत्येक व्यक्ति की कुछ अपनी विशेष कलात्मक शैलिया होती हैं संगीत शिक्षा के दौरान शिक्षार्थी इन्हे प्रयोग नहीं कर सकता क्योकि गुरु की नकल कर के ही सीखना होता था परन्तु शिक्षा पूर्ण करने के पश्चात ये शिक्षार्थी जब अपनी इन विशेषताओं के साथ सीखने लगते हैं तब यह अपने इन्ही गुणों के कारण दुसरो से अलग विशेषताओं को लिए हुए एक नए घराने के रूप में सामने आते हैं इस प्रकार घरानो का संगीत विकसित हुआ |आज शास्त्रीय संगीत की शिक्षा संबंधी अनेक घराने प्रचार में आ गए हैं और प्रत्येक अपनी एक अलग विशेषताएं लिए हुए हैं इन घरानो के संगीत ने शस्त्रीय  संगीत के उत्थान में अपना बहुत बड़ा योगदान दिया हैं 

संगीत का प्रभाव

 संगीत का प्रभाव 

संगीत एक साधन भी हैं और साधना भी | आध्यात्मिक दृष्टि से देखा जाये तो संगीत ईश्वर को प्राप्त करने का  एक ऐसा साधन हैं जो ईश्वर के द्वारा मानव को दिया गया वरदान स्वरूप हैं संगीत के माध्यम से ईश्वर को प्राप्त किया जा सकता हैं यह  हमारी धार्मिक मान्यताओं  में भी देखने को मिलता हैं साधना की शक्ति ईश्वर को भी प्रकट होने पर मजबूर कर देती हैं संगीत  भी एक साधना हैं स्वरों  के निरंतर अभ्यास के माध्यम से इसे प्राप्त किया जाता हैं इसी प्रकार स्वर साधना के माध्यम से एक ऋषि व् योगी  साधना  करते हुए उस परम् शक्ति को प्राप्त करता हैं हमारे ग्रंथो में भी संगीत को मुक्ति मार्ग के रूप में बताया गया हैं 

ऋग्वेद के अनुसार :-"स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसे निरेक उक्थिन |" अर्थात हे शिष्य | तुम अपने आध्यात्मिक


उत्थान के लिए मेरे पास आये हो |इसलिए मैं तुम्हे ईश्वर का उपदेश देता हूँ यदि तुम भगवान को संगीत के माध्यम से पुकारोगे, तो वह तुम्हारे ह्रदये में प्रकट होकर तुमको अपना प्यार प्रदान करेगा |

 अनेक ऐसे साधु महात्मा हुए हैं जिन्होंने संगीत को ईश्वर की आराधना के साधन के रूप में अपनाया हैं जैसे मीरा बाई , कबीर दास ,सूर दास, तुलसी दास आदि इन्होने संगीत में भक्ति रस को जन्म दिया  

संगीत में वो शक्ति हैं जो साधारण मनुष्य को असाधारण व प्रतिभावान बनती हैं मानव मन मष्तिष्क पर  इसका बहुत गहरा प्रभाव पड़ता है संगीत की मधुर ध्वनि में प्राणी मात्र अपनी समस्त चिंताओं को भुला कर अपने ध्यान को एक स्थान पर केंद्रित कर पता हैं इस बात को ध्यान में रख कर आज कई स्थानों पर संगीत के माध्यम से अनेको व्यक्तियों का इलाज किया जाता हैं जिसे हम म्यूजिक थेरपी के नाम से जानते हैं क्योकि संगीत का व्यक्ति के मन और मस्तिष्क पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता हैं जैसे के कभी आप  उदास होते हैं और यदि उस समय आप कोई जोश से भरा गीत सुनते हैं तो आपका मन खुश हो जायेगा और उदासी के भाव नहीं रहेंगे |इसी प्रकार संगीत के माध्यम से भाव विभोर भक्तो की आखो में बह रही अश्रु धारा  के साथ नृत्य करते हुए इन भक्तो पर संगीत का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता हैं  संगीत केवल मानव मात्र को प्रभावित नहीं करता अपितु संगीत का प्रभाव प्राणी मात्र पर देखा जा सकता हैं इसे सभी प्रकार के जीव -जंतु ,पेड़ - पौधे , वनस्पति, वातावरण  व पर्यावरण सभी को प्रभावित करता हैं ये भी संगीत को महसूस करते हैं और प्रभावित होते हैं संगीत इनके विकास में भी योगदान देता हैं प्रत्येक जीव को संगीत अति प्रिय हैं  अनेको ऐसी शोध  हुए हैं जिनमे बार बार यही परिणाम पाया गया हैं की संगीत का हर प्राणी पर बहुत अधिक प्रभाव पड़ता हैं उदाहरण के लिए हम प्राचीन कथाओ में आज तक सुनते हुए आये हैं की तानसेन जब कोई राग गाते थे तो कभी बारिश होती थी तो कभी दीपक जलते थे इस प्रकार संगीत में इतनी शक्ति हैं की कोई भी साधारण इंसान कड़ी मेहनत कर संगीत साधना के माध्यम से  आसाधारण बन सकता हैं  और संगीत के माध्यम से अपने पर्यावरण म परिवर्तन कर सकता हैं अभी नवीन समय में देखे तो संगीत पर अनेको शोध हुए हैं अनेक जगहों पर कई प्रकार की बीमारियों का इलाज केवल संगीत के माध्यम से किया जा रहा हैं जिसे हम म्यूजिक थेरपी के नाम से जानते हैं पहले भी कई ऐसी शोध हो चुके हैं जिनके अनुसार ये


स्वीकार किया गया हे की संगीत से पेड़-पोधो, वनस्पति,फसलों  का  विकास प्रभावित होता हैं संगीत हर क्षेत्र को प्रभावित करता हैं तानसेन जब गाते थे तो वह अनेको हिरण व् अन्य जानवर भीं एकत्रित हो जाये करते थे यहबात बताती हैं की जीवो पर संगीत का कितना गहरा प्रभाव पड़ता हैं आज भी कई स्थानों पर यह देखने को मिलता हैं जैसे घोड़ी ,ऊंट ,सांप आदि नृत्य करते हुए |कोयल के गीत जीवन में मधुर संगीत का महत्व बताते हैं यदि हम इन सभी तथ्यों पर विचार करे तो यही पाएंगे की संगीत के अभाव में जीवन , जीवन ही नहीं होगा क्योकि संगीत प्राणी मात्र के जीवन का अभिन्न अंग हैं  संगीत सृष्टि के कण कण  में व्याप्त हैं मनुष्य के ह्रदय में गूंजने वाले मधुर भावो से लेकर ब्रह्माण्ड में गूंजने वाली ओउम की ध्वनि तक सब संगीतमय हैं 

मेघ मल्हार

 


राग - मेघ मल्हार  
थाट - काफी 
जाति - औडव - औडव 
वादी - म 
सम्वादी - सा 
स्वर - नि कोमल शेष शुद्ध 
वर्जित स्वर - ग ध
न्यास के स्वर - नि सा म रे 
समय - रात्रि का दूसरा प्रहर 
सम प्रकृतिक राग - मधुमाद सारंग 
आरोह -सा रे म रे प म प नि सां 
अवरोह - सां नि प म रे प रे s  
पकड़ - प नि सा रे , रे , म  प नि प म रे सा 


यह गंभीर प्रकृति  का राग हैं  इस राग को वर्षा ऋतू में इस राग को हर समय गाया - बजाया  जा सकता हैं इसलिए इस राग को ' मेघराज ' के नाम से भी जाना जाता हैं यह एक अति मधुर राग हैं और इसका चलन तीनो सप्तकों में किया जा सकता हैं  यह मीड प्रधान राग हैं रे पर म का कण इस राग की एक विशेषता हैं इस राग में मींड, गमक का खूब प्रयोग होता हैं कोमल नि पर प का कण लिया जाता हैं रे पर किए जाने वाले आन्दोलन  से इस राग को पहचानने में सहायता मिलती हैं इस राग के स्वे मधुमाद सारंग के समान हैं परन्तु वादी स्वर अलग (रे) होने और म रे स्वर संगति में मींड के उपयोग न किये जाने से इसमें भिन्नता आ जाती हैं रे प स्वर संगति मल्हार अंग को प्रदर्शित करती हैं 

मियां मल्हार

 


 राग -मियां मल्हार 

थाट - काफी 

जाति - सम्पूर्ण -षाड़व 

वादी - सा  

सम्वादी  - प 

स्वर - ग नि कोमल शेष शुद्ध 

वर्जित स्वर - अवरोह में ध

न्यास के स्वर- सा रे प 

समय - मध्य रात्रि 

सम प्रकृतिक राग - बहार 




राग मियां मल्हार सभी संगीतज्ञों का पसंदीदा राग हैं  यह पूर्वांग प्रधान गंभीर प्रकृति का राग हैं इसमें करुण रस की प्रधानता होती हैं  आम बोलचाल में इसे मिया मल्लार भी कह दिया जाता हैं यह मौसमी रागो के अंतर्गत रक्खा जाता हैं यह राग  वर्षा ऋतू का राग हैं इसीलिए इस राग में बादल, बिजली, वर्षा आदि शब्दों का प्रयोग जरूर पाया जाता हैं     

 इसका चलन तीनो सप्तकों में होता हैं परन्तु यह मंद और मध्य सप्तक में अपेक्षाकृत अधिक गाया जाता हैं इसमें गंधार पर आंदोलन किया जाता हैं इसमें नि ध और   रे प स्वर संगति विशेषतः देखने को मिलती हैं इस राग का आविष्कार तानसेन द्वारा मन जाता हैं संगीतज्ञों का मानना  हैं की यह राग दरबारी और मल्हार के मिश्रण से बना हैं 

नायकी कान्हड़ा

 राग - नायकी कान्हड़ा

 थाट - काफी 

जाति- षाड़व  -षाड़व

 वादी - म

सम्वादी - सा 

स्वर - ग नि कोमल शेष शुद्ध 

समय - रात्रि का तृत्य प्रहर 

वर्जित स्वर - ध

न्यास के स्वर - म  सा 

सम प्रकृतिक राग - शाहना 




नायकी कान्हड़ा उत्तरांग प्रधान राग हैं इसकी प्रकृति गंभीर हैं नायकी कान्हड़ा का निर्माण  विषय में यह कहा गया है कि इसका निर्माण देवगिरीके दरबारी गायक पंडित गोपाल नायक जी के द्वारा किया गया हैं सके पूर्वांग में


सुहा व उत्तरांग में सारंग का योगे बताया गया हैं परन्तु भावभट्ट ने अपने ग्रंथ अनूप विलास में इस राग को मल्हार व कान्हड़ा का योग बताया हैं 

कुछ संगीतज्ञों द्वारा इसमें ध को वर्जित न करते हुए कोमल ध का प्रयोग करते है और इसे सम्पूर्ण जाती का राग मान क्र गाते हैं परन्तु यही अभी इतना प्रचार में नहीं आया हैं  कुछ विद्वानों के मतानुसार यह राग कान्हड़ा, कौशिक और बागेश्री रागो से मिलकर बना हैं 

नायकी कान्हड़ा उत्तरांग प्रधान राग हैं इसकी प्रकृति गंभीर हैं नायकी कान्हड़ा का निर्माण  विषय में यह कहा गया है कि इसका निर्माण देवगिरीके दरबारी गायक पंडित गोपाल नायक जी के द्वारा किया गया हैं सके पूर्वांग में सुहा व उत्तरांग में सारंग का योगे बताया गया हैं परन्तु भावभट्ट ने अपने ग्रंथ अनूप विलास में इस राग को मल्हार व कान्हड़ा का योग बताया हैं 

कुछ संगीतज्ञों द्वारा इसमें ध को वर्जित न करते हुए कोमल ध का प्रयोग करते है और इसे सम्पूर्ण जाती का राग मान क्र गाते हैं परन्तु यही अभी इतना प्रचार में नहीं आया हैं  कुछ विद्वानों के मतानुसार यह राग कान्हड़ा, कौशिक और बागेश्री रागो से मिलकर बना हैं 

पूरिया कल्याण


राग - पूरिया कल्याण
ठाट - कल्याण 
जाति  - सम्पूर्ण -  सम्पूर्ण 
वादी - ग 
सम्वादी- नि 
स्वर - रे म शेष शुध्द 
न्यास के स्वर - ग प नि 
समय - रात्रि का प्रथम प्रहर 






इस राग के पूर्वांग में पुरिया और उत्तरांग में कल्याण राग के स्वर लगते हैं कुछ विद्वान इस राग में दोनों ऋषभ का प्रयोग भी करते हैं कोमल रे को अवरोह में तथा तीव्र रे को आरोह में प्रयोग किया जाता हैं परन्तु आजकल  केवल कोमल रे को ही गाने का प्रचलन अधिक हैं यह एक मधुर राग हैं इसमें ग प की संगति विशेष वैचित्रय

उतपन्न करती हैं इस राग में प स्वर अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान रखता हैं  कभी कभी इसके आरोह और अवरोह में सा लंघन कर दिया जाता हैं और स राग में रे(कोमल ) म(तीव्र ) ग  की संगति देखने को मिलती हैं 


राग - भूपाली


 राग - भूपाली 

थाट - कल्याण  

जाती - औडवऔडव

वादी  ग 

सम्वादी - ध

स्वर - सभी शुद्ध स्वर  

वर्जित स्वर - म नि 

न्यास के स्वर ग  प  ध

समय -  रात्रि का प्रथम प्रहर 

सम प्रकृतिक राग - देशकार 

आरोह - सा रे ग प ध सां 

अवरोह - सां ध  प ग रे सा 

पकड़ - सा ध रे सा, ग रे ग ,प , ग ध , प , ध सां , ध रें सां l

                                                                                                                        यह पूर्वांग प्रधान राग हैं , इसका चलन मंद्र और मध्य सप्तक में अधिक पाया जाता हैं क्षीण भारतीय संगीत में इसे राग मोहनम के नाम से जाना नाता हैं इस राग में ध रे  सा संगति प्रमुख हैं इसका विस्तार तार सा में अल्प ही होता हैं इसमें श्रंगार रसब प्रधान बंदिशे अति मधुर लगती हैं यदि राग के उत्तरांग में धैवत को प्रबल कर दिया जाये तो इसमें देशकार की छांया आ जाती हैं देशकार , जैत कल्याण , और शुद्ध कल्याण तीनो एक दूसरे से मिलते जुलते राग ही हैं